2 December 2015

एक दिन यूँ ही...!!!

रिश्तों के अर्थ बदल जाते हैं
कभी समझी न ये की कैसे बदलते हैं
पर सच है की बिलकुल बदल जाते हैं। 

एक दिन यूँ ही कुछ सवाल सा कौंधा  की
मेरे घर से निकलती है एक पगडण्डी
जो सड़क से जा कर के मिली है
पहली दफ़ा जब चली थी लगा, कहाँ ले चली है ?
पर भरोसा दिलाया जब सड़क से मुझको मिलाया

कई मौसम गुज़रे , कई गड्ढे भी खुद गए
पर  उस पगडण्डी ने फिर भरोसा दिलाया
और हर बार सड़क से मुझको मिलाया

अदभूत है न। .... इतनी कठिनाइयां आयीं होंगी 
हम तुम तो फिर भी बदले पर बरसों से बनी ये पगडण्डी
इसके अर्थ कभी भी क्यों ना बदले ??

परन्तु मनुष्य का स्वाभाव ही यही है
कहते हैं जिज्ञासी बड़ा है ,खुद पर घमण्ड  भी बड़ा है
अपने सुख सुविधा स्वरुप
रिश्तों केअर्थ को भी दिया है इसने कई सारे रूप
कपटी है और है बहुत कुरुप
चयन करता है अपने लाभ स्वरुप

मुखौटा लगाये अपने कुरूप मुख मंडल को छुपाये 
भ्रमित करता हुआ स्वयं को भी
और स्वयं से जुड़े मनुष्यों को भी

मुर्ख है.. .!!! जनता नहीं की शब्दकोष  में  ये  रिश्तों के अर्थ
ही हैं जिनका समानार्थक कुछ भी नहीं ,
बस एक ही मूल अर्थ है
अपना सर्वस्व निछावर करदेना
न कोई चयन ,,,न कोई लाभ की अपेक्षा ,,,
की किस रिश्ते नाते का भाव है कितना
मन का मिलना ही सर्वस्व क्यों नहीं होता??
कितना कपटी है मनुष्य !!!
इस अर्थ को समझने के लिए एक जन्म शेष नहीं ऐसा कहते है
 अदभूत विडम्बना है की  मानते  नहीं , की जीवन तो बस है एक
और इस अर्थ का कोई समानार्थक  है  कहाँ ?? ये भी तो देख .!!!!

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