23 September 2012

मेरे बचपन का वो आंगन


मेरे बचपन का वो आंगन 


मेरे बचपन का वो आंगन 
भीनी  यादों की वो खुशबू,,

अंगडाई  लेते हुए सपने 
थामे  ममता का वो दामन
कभी माँ की वो लोरी  
कभी यूँ ही मनाना 
जाके फिर रूठ जाना


कभी आखें यू मिची उन 
बदल में गूम हो जाना ,,,
तो कभी तारोंन को गिनना
चंदा मामा का आना और किस्सों का रुक जाना
खुले असमान को यू तकना
गिरते तारों को भी हो मनो लपकना 

 मेरे बचपन का वो आंगन
भीनी  यादों की वो खुशबू

वही रास्ता वही घर है
वही आंगन वही  चौबारा  
वही संध्या की है लाली 
वही सूरज का चमकना
वही चिड़ियों का चेहेकना 
मनो कल-परसों की कहानी
सब वही है और वहीँ है..
फिर भी कहीं बदली है मेरी कहानी ......

खूब याद है पढने  से जी चुराकर 
 रंग बिरंगे उन चित्रों की सैर ,, 
फिर कभी रंगों को समझना 
और उन चित्रों  को भरना 
काश रख पाती मैं गर इन रंगों की समझ 
न बदलती मेरी कहानी होती कुछ तो सेहेज

 मेरे बचपन का वो आंगन
भीनी यादों की वो खुशबू


जहाँ मैंने लड़खड़ा कर  कभी चलना था सिखा..
कभी गिर जो गयी तो फिर उठाना भी सिखा 
 सोचती हूँ खूब रोई भी होगी गिरी थी कभी जब 
फिर सोचती हूँ......!! न गिरती कभी गर उठ कहाँ पाती ज़मीं पर 
ज़िन्दगी रूकती कहाँ है ,ये कभी थकती कहाँ है
उठ खड़े  हुए जमीं पर तो क्या ..?
अब तो दौड़ना भी है बाकि ....

तब कहाँ  होगा मेरे बचपन का वो आंगन..
रह जाएगी  तो बस यादों की भीनी खुशबु .....!!!!!

मनुष्य सुख-दुःख का व्यापारी


"मनुष्य सुख-दुःख का व्यापारी"

मनुष्य सुख-दुःख का व्यापारी 
हेर चीज़ यहाँ पर बिकती है 
सुख यहाँ है कितनी सस्ती  ..
शर्त यही है...हाँ हाँ !!! शर्त यही है
सुख पाना है तो दुःख देना होगा 
मोल लगाओ बस सही मोल लगाओ
जीवन के इस मंडी में


मनुष्य सुख-दुःख का व्यापारी 
हेर चीज़ यहाँ पर बिकती है 

कभी पैसे से ,कभी सपनो से, कभी अपनों से ,
कभी दूजों से तो कभी शब्दों से,
मोल लगाओ बस सही मोल लगाओ
जीवन के इस मंडी में...

समझ न सका जीवन का मोल 
और बेच दिया सुख को दुःख के बठखरे से तोल,
घेर लौट गया जब सब कुछ वह तोल
हंस न सका... रो भी न सका 
जब देखा अपने बटवे को खोल

एक चवन्नी भी न थी,,न थे कोई सपने,,
और न थे कोई अपने..और न ही कोई पराये..
सब कुछ गवां चूका था...दाव पर सब कुछ लगा चूका था..
हर गया सब...हर गया.....

हेर चीज़ यहाँ कब बिकती है??
सुख का न कोई मोल,
उसे किसी तराजू से न तोल

मनुष्य तू सुख सुख दुःख का व्यापारी नहीं...
हेर चीज़ यहाँ पर बिकती नहीं...
तू न मोल लगा...
अब और ना मोल लगा....
जीवन है कोई मंडी नहीं.... !!!

निःशब्द


निःशब्द 

शब्दों से मेरी ये द्वन्द 
जाने कब से छिड़ी है
हाँ शब्दों से मेरी ये द्वन्द
ना जाने क्यूँ ये छिड़ी है
मेरे ही शब्दों से मेरी ये जंग

जब कभी जग ने साथ है मेरा छोड़ा 
ये शब्द ही तो थे जो हमेशा पास रहे मेरे
मेरे कलम की नोक बन करर हेर पल
साथ रही मेरे..

तो फिर क्यूँ  रूठ गए है मुझसे
मेरे ही अपने शब्द 

नदी की विपरीत दिशा में
बह रही हूं ....हाँथ बढ़ाये जग से वैसे भी कोई आस नहीं 
मेरे शब्द तू  ही आजा शब्दों की नव सी बना 
चल ले चल पार मुझे कहीं
दूर बहुत दूर मुझे ले चले तुए अपने संग 
इस नगर से कहीं दू बहुत दूर 

तू ही सुख तुए ही प्रिय 
तुए ही प्रतिबिम्ब तू ही प्रिय 
तू ही उजागर करे मेरी हर व्यथा 
मेरी हर कथा , तू ही मेरा प्रयास 
और तू ही मेरा पुरस्कार 
देख खड़ी में शब्दों के इस पार
हाँथ बढाए...
अब ना रूठ  साँझ भी हो चली
ले चल मुझे अब चल पार करा दे
मुझे जाना है मुझे शब्द के उस पार.......

मेरे आंगन का वो पौधा

                                                  मेरे आंगन का वो पौधा
कई वर्षों से जो था जन्मा
कुछ पत्ते भी थे जिनमें
आधी -सुखी डाली से यूं लटके
                                           
ना वो बढ़ता
ना वो मरता
ना जाने क्यों ठूँठ सा वो खड़ा था
पर  फिर भी साँस भी थी कहीं बाकि

वो था मेरे ही आंगन का पौधा

कई ऋतुएँ आयी-गयी थीं
ना तो कोई हलचल हुई थी 
फिर भी वो स्थिर सा खड़ा था
था तो बस माटी का सहारा

ऐसा था मेरे आंगन का वो पौधा 

कई बार कोसा उसे मैंने 
कई बार रखा भी  प्यासा
मगर वह जिद्दी बड़ा था
तन के फिर भी जिन्दा खड़ा था
साथ जन्में थे और भी पौधे ,जो की बड़े फुले - फले थे
पर फिर भी किसी संवेदना से परे थे 

कुछ यूं था मेरे आंगन का वो पौधा

एक दिन मेरी ऑंखें खुली जब'
देख दांग उसे रह मैं गयी तब
एक नन्ही सी कलि  मुख बढ़ाये थी खड़ी
नन्ही कुछ कोपल भी थे निकले
हलके हरे रंगों के चादर को समेटे
देख उसे मनो फुले ना समायी

है ये वही पौधा जो मेरे आंगन मैं बढा था

कुछ इशारा  किया फिर मुझे उसने
तब कहीं मैं ये समझा पाई 
की माना कई ऋतुएँ थी गुजरी 
फिर भी सावन का आना था बाकि
आज वही सावन है आया
जिसकी बूंदों ने उस सूखे पौधे को था जगाया
ये देख मेरी बस ऑंखें भर आयी
आज कुछ तो सीख मैंने उस नन्हे पौधे से थी पाई...

16 September 2012

शुन्य सी.....

शुन्य सी --


है ये प्रारंभ या शेष , 
सागर के तट क्या बता सकते  हो  
तट का ये छोर तुम्हारी यात्रा का शेष है? 
या प्रारंभ..?
नभ क्या तुम बता सकते हो तुम्हारे आदि और अंत की कथा?
धरा भी मौन सी.. मेरे प्रश्नों का उत्तर ना दे सकी

कष्ट, पीढा तुम तो मौन ना रहो , 
तुम्हारा होना सुखो का अंत है या 
उनके आने का आभास......?
समृद्धि, वर्चस्व शांति का आगमन है या समाप्ति ?
मृत्यु आत्मा की यात्रा का अंत है या प्रारंभ....?
कई  ऐसे असीम प्रश्नों के उत्तर की खोज में मैं
शून्या सी.......!!!!!