23 September 2012

निःशब्द


निःशब्द 

शब्दों से मेरी ये द्वन्द 
जाने कब से छिड़ी है
हाँ शब्दों से मेरी ये द्वन्द
ना जाने क्यूँ ये छिड़ी है
मेरे ही शब्दों से मेरी ये जंग

जब कभी जग ने साथ है मेरा छोड़ा 
ये शब्द ही तो थे जो हमेशा पास रहे मेरे
मेरे कलम की नोक बन करर हेर पल
साथ रही मेरे..

तो फिर क्यूँ  रूठ गए है मुझसे
मेरे ही अपने शब्द 

नदी की विपरीत दिशा में
बह रही हूं ....हाँथ बढ़ाये जग से वैसे भी कोई आस नहीं 
मेरे शब्द तू  ही आजा शब्दों की नव सी बना 
चल ले चल पार मुझे कहीं
दूर बहुत दूर मुझे ले चले तुए अपने संग 
इस नगर से कहीं दू बहुत दूर 

तू ही सुख तुए ही प्रिय 
तुए ही प्रतिबिम्ब तू ही प्रिय 
तू ही उजागर करे मेरी हर व्यथा 
मेरी हर कथा , तू ही मेरा प्रयास 
और तू ही मेरा पुरस्कार 
देख खड़ी में शब्दों के इस पार
हाँथ बढाए...
अब ना रूठ  साँझ भी हो चली
ले चल मुझे अब चल पार करा दे
मुझे जाना है मुझे शब्द के उस पार.......

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