निःशब्द
शब्दों से मेरी ये द्वन्द
जाने कब से छिड़ी है
हाँ शब्दों से मेरी ये द्वन्द
ना जाने क्यूँ ये छिड़ी है
मेरे ही शब्दों से मेरी ये जंग
जब कभी जग ने साथ है मेरा छोड़ा
ये शब्द ही तो थे जो हमेशा पास रहे मेरे
मेरे कलम की नोक बन करर हेर पल
साथ रही मेरे..
तो फिर क्यूँ रूठ गए है मुझसे
मेरे ही अपने शब्द
नदी की विपरीत दिशा में
बह रही हूं ....हाँथ बढ़ाये जग से वैसे भी कोई आस नहीं
मेरे शब्द तू ही आजा शब्दों की नव सी बना
चल ले चल पार मुझे कहीं
दूर बहुत दूर मुझे ले चले तुए अपने संग
इस नगर से कहीं दू बहुत दूर
तू ही सुख तुए ही प्रिय
तुए ही प्रतिबिम्ब तू ही प्रिय
तू ही उजागर करे मेरी हर व्यथा
मेरी हर कथा , तू ही मेरा प्रयास
और तू ही मेरा पुरस्कार
देख खड़ी में शब्दों के इस पार
हाँथ बढाए...
अब ना रूठ साँझ भी हो चली
ले चल मुझे अब चल पार करा दे
मुझे जाना है मुझे शब्द के उस पार.......
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