23 September 2012

मेरे आंगन का वो पौधा

                                                  मेरे आंगन का वो पौधा
कई वर्षों से जो था जन्मा
कुछ पत्ते भी थे जिनमें
आधी -सुखी डाली से यूं लटके
                                           
ना वो बढ़ता
ना वो मरता
ना जाने क्यों ठूँठ सा वो खड़ा था
पर  फिर भी साँस भी थी कहीं बाकि

वो था मेरे ही आंगन का पौधा

कई ऋतुएँ आयी-गयी थीं
ना तो कोई हलचल हुई थी 
फिर भी वो स्थिर सा खड़ा था
था तो बस माटी का सहारा

ऐसा था मेरे आंगन का वो पौधा 

कई बार कोसा उसे मैंने 
कई बार रखा भी  प्यासा
मगर वह जिद्दी बड़ा था
तन के फिर भी जिन्दा खड़ा था
साथ जन्में थे और भी पौधे ,जो की बड़े फुले - फले थे
पर फिर भी किसी संवेदना से परे थे 

कुछ यूं था मेरे आंगन का वो पौधा

एक दिन मेरी ऑंखें खुली जब'
देख दांग उसे रह मैं गयी तब
एक नन्ही सी कलि  मुख बढ़ाये थी खड़ी
नन्ही कुछ कोपल भी थे निकले
हलके हरे रंगों के चादर को समेटे
देख उसे मनो फुले ना समायी

है ये वही पौधा जो मेरे आंगन मैं बढा था

कुछ इशारा  किया फिर मुझे उसने
तब कहीं मैं ये समझा पाई 
की माना कई ऋतुएँ थी गुजरी 
फिर भी सावन का आना था बाकि
आज वही सावन है आया
जिसकी बूंदों ने उस सूखे पौधे को था जगाया
ये देख मेरी बस ऑंखें भर आयी
आज कुछ तो सीख मैंने उस नन्हे पौधे से थी पाई...

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